Sunday 24 September 2017

कवि कवियों से .... "एक सफ़र " ----- "मैं "

                                                    ---- " मैं "----

कवि  कवियों से .... "एक सफ़र "


वो "मैं " मैं  नहीं वो हर एक लेख़क  है जो मन के संचार को काग़ज़  पर अपने शब्दों से पिरोता है | वैसे तो हम अपने  आस पास कई लेखकों से मिलते है या दूसरे शब्दों में कहा जाए तो हम कई चिंतन करने वाले चेहरों से मिलते है | यही सब गुमनाम चेहरे और अनजान नाम कभी कवि  कहलाते है तो कभी उनके अलग अलग पर्यायवाची शब्दों से तोले  जाते है | समय के गुज़रते पहिये के साथ साथ हिंदी का रूप ,कविता का परिचय और कवि  का पहनावा तीनों  ही बदल चुके हैं |

यह समय ही है जो सोचने का ढंग , लिखने का तरीक़ा  और लोगो को समझाने के विषय से लेकर हर एक कोने में अपना प्रभाव डालता है | कविताओं की दुनिया में जितना "मैं " मैं  को समझता हूँ उस हिसाब से आज कल उर्दू और हिंदी न ही सगी बहनें है और न ही मौसी-खाला | हो सकता एक वो समय रहा हो जब लेखकों को दोनों भाषाओँ की अच्छी तरह से समझ हो और उन्होंने दोनों का एक पैमाने में इस्तेमाल भी किया हो |

आज का युग नवयुग है जहाँ शायद एक भाषा की समझ भी लोगो को नहीं है | इस युग को महा लेख़क  श्री पियूष मिश्रा जी ने अपनी एक कविता में बड़े आसान से शब्दों में समझाया है  जहाँ वो कहते है  की आज के युग की आज़ादी "अपनी आज़ादी तो भैया लौंडिया के दिल में है " | यहाँ उनके इस पंक्तियों से मैं बिलकुल सहमत हूँ |  आज की पीढ़ी जिसे खुद के नाम का अर्थ नहीं पता ,आज के लेख़क  जो चार चार पक्तियॉँ  उन्ही ग़ालिब मिर्ज़ा से चुरा कर रख देते है और वाह वाही लूटने की होड में खड़े हो जाते है वो धोखे से लेख़क  कहलाते है जिन्हे खुद लेखक होने पर शक होता है |

महांकावी केदारनाथ अग्रवाल ,गोपाल सिंह 'नेपाली ', शमशेर बहादुर सिंह ,शर्वेश्वर दयाल सक्सेना ,अमृता प्रीतम ,हरिवंशराय बच्चन , निराला जी ,जॉन एलीआ ,मैथिलीशरण गुप्त ,इत्यादि इनकी कविताओं में एक अलग चमक थी | इनके श्रोताओं  में एक अलग गूंज थी और ये गूँज  उस कविता के सार पर अमल करने की थी |

आज कल जो "मैं " है उसको समय समय पर भ्रमित होना ही पड़ता है | चार दीवार में एक यंत्र से कुछ २०० कानो  तक यह समझाने की कोशिश होती है कि  आप अगर कुछ परिवर्तन लाना चाहते है तो कलम का त्याग कर दे | दिम्माग कुछ सोच पाता  या समझने की उस विचारधारा पर अमल कर पाता  उसके पहले एक अलग पहलु में बात होनी ही थी " आज हिंदी दिवस में विभाग में इतना सन्नाटा क्यों ?" इससे इशारा मेरा किसी एक चेहरे या एक विभाग पर नहीं है | वो जो " मैं " है वो ये जानना चाहता है  की कुछ विशेष दिनों पर उनकी याद या उन पर अमल करना क्यों होता है ?

एक सभा में लेखकों को एकत्रित करना की वो समाज सुधारक सोच पर अपनी रचनाओं से लोगो को जागरूक करे ये सब "मै" के साथ उसके आस  पास हो रहा था | यही आज के कवियों ,लेखकों का दुर्भाग्य है की एक ही चेहरे के कई रूप देखने को मिल जाते है | वहाँ यह जान पाना थोड़ा मुश्किल होता है की इनके  शब्दों में तथ्य है भी या सिर्फ छलावा  और मिथ्या से बुना  हुआ कोई सफर हैं |    

कटाक्ष को कविधारा में प्रवाह करना शायद उतना कठिन सफर नहीं जो आपके आस पास हो रहा है उसे कुछ समय में सही ढंग से पहचान पाना | "मैं " में जितने आज के उभरते रचनाकार है  या लेखक है वहाँ  सच्चाई क्या है या तात्पर्य क्या है  ये जान पाना थोड़ा ज़्यादा  ही दिशाहीन होने जैसे हैं |

कहा  गया है " डूबते को तिनके का सहारा ही काफी होता है " लेकिन अगर वो तिनका ज्ञान का इतना भारी भण्डार हो जो खुद आधा डूब  चुका  हो या इतना हल्का हो जिसको आप पकड़े  और वो डूबने लग जाए तोह उस सहारे का सहारा लेना "मैं" को बेसहारा कर देने जैसा कुछ होगा |

आज की कविताओं में "मैं " भटका हुआ है जो खुद को ढूंढ़ने की हर सुबह कोशिश करता है | आज की लेखनी में "मैं " खोया हुआ है जो शाम को घर का रास्ता भूल जाता है|
वो आज जो भटका खोया नहीं वो कवि  या लेख़क  होने के मूल सिद्धांतों पर ही नहीं है | खोना -भटकना और भटकते रहना यही दिशा मे आज का कवि सोचता हैं  लेकिन उसकी सोच पर अमल करने वाले वो श्रोता आज पूरी तरह खिड़कियों पर बैठे कानो में ध्वनि यन्त्र लगाए कही और ही नज़र आते है |




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