कवि कवियों से ... एक सफ़र
- राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त
कवि कवियों से ... एक सफ़र
कवि कई हुए,
कुछ के नाम हुए,
कुछ गुमनाम सोए,
कुछ सोते ही रहे,
कुछ जागते ही रहे,
कुछ लिखते ही रहे,
कुछ सोचते ही रहे
कुछ बड़े हुए,
कुछ तो बडकर चल दिए ,
कुछ लिख दिए तो- कुछ उन्हें पढ़कर चल दिए | ---@शीष ---
इन्ही में से एक महाकवि है राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त(३ अगस्त १८८६ – १२ दिसम्बर १९६४) हिन्दी के कवि है ।मैं कवियों को मृत इसलिए नहीं समझता हूँ क्योंकी शरीर तो माटी है | आज नहीं तो कल शरीर का त्याग होना ही है लेकिन कवि के बोल उनके शब्द ही उनकी सच्चाई है वो न मृत है और न मृत होंगे |
"निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
मरणोंत्तर गुंजित गान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
कुछ हो न तज़ो निज साधन को न रहो,
न निराश करो मन को।"
- राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त
मैथिलीशरण गुप्त का जन्म ३ अगस्त १८८६ में पिता सेठ रामचरण कनकने और माता कौशिल्या बाई की तीसरी संतान के रूप में उत्तर प्रदेश में झांसी के पास चिरगांव में हुआ।
माता और पिता दोनों ही वैष्णव थे। वे "कनकलताद्ध" नाम से कविता करते थे। विद्यालय में खेलकूद में अधिक ध्यान देने के कारण पढ़ाई अधूरी ही रह गयी। घर में ही हिन्दी, बंगला, संस्कृत साहित्य का अध्ययन किया।
मुंशी अजमेरी जी ने उनका मार्गदर्शन किया। १२ वर्ष की अवस्था में ब्रजभाषा में कविता रचना आरम्भ किया। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में भी आये। उनकी कवितायें खड़ी बोली में मासिक "सरस्वती" में प्रकाशित होना प्रारम्भ हो गई। प्रथम काव्य संग्रह "रंग में भंग' तथा बाद में "जयद्रथ वध प्रकाशित हुई।
उन्होंने बंगाली के काव्य ग्रन्थ "मेघनाथ वध", "ब्रजांगना" का अनुवाद भी किया। सन् १९१४ ई. में राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत "भारत भारती" का प्रकाशन किया। उनकी लोकप्रियता सर्वत्र फैल गई। संस्कृत के प्रसिद्ध ग्रन्थ "स्वप्नवासवदत्ता" का अनुवाद प्रकाशित कराया।
१९५४ में साहित्य एवं शिक्षा क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।इसी वर्ष प्रयाग में "सरस्वती" की स्वर्ण जयन्ती समारोह का आयोजन हुआ जिसकी अध्यक्षता गुप्त जी ने की। सन् १९६३ ई० में अनुज सियाराम शरण गुप्त के निधन ने अपूर्णनीय आघात पहुंचाया।
१२ दिसम्बर १९६४ ई. को दिल का दौरा पड़ा और साहित्य का जगमगाता तारा अस्त हो गया। ७८ वर्ष की आयु में दो महाकाव्य, १९ खण्डकाव्य, काव्यगीत, नाटिकायें आदि लिखी। उनके काव्य में राष्ट्रीय चेतना, धार्मिक भावना और मानवीय उत्थान प्रतिबिम्बित है। "भारत भारती' के तीन खण्ड में देश का अतीत, वर्तमान और भविष्य चित्रित है। वे मानववादी, नैतिक और सांस्कृतिक काव्यधारा के विशिष्ट कवि थे।
महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की प्रेरणा से खड़ी बोली को राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया और अपनी कविता के द्वारा खड़ी बोली को एक काव्य-भाषा के रूप में निर्मित करने में अथक प्रयास किया और इस तरह ब्रजभाषा जैसी समृद्ध काव्य-भाषा को छोड़कर समय और संदर्भों के अनुकूल होने के कारण नये कवियों ने इसे ही अपनी काव्य-अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। हिन्दी कविता के इतिहास में गुप्त जी का यह सबसे बड़ा योगदान है।
पवित्रता, नैतिकता और परंपरागत मानवीय सम्बन्धों की रक्षा गुप्त जी के काव्य के प्रथम गुण हैं, जो पंचवटी से लेकर जयद्रथ वध, यशोधरा और साकेत तक में प्रतिष्ठित एवं प्रतिफलित हुए हैं। साकेत उनकी रचना का सर्वोच्च शिखर है।
गुप्त जी के काव्य में राष्ट्रीयता और गांधीवाद की प्रधानता है। इसमें भारत के गौरवमय अतीत के इतिहास और भारतीय संस्कृति की महत्ता का ओजपूर्ण प्रतिपादन है। आपने अपने काव्य में पारिवारिक जीवन को भी यथोचित महत्ता प्रदान की है और नारी मात्र को विशेष महत्व प्रदान किया है।
गुप्त जी ने प्रबंध काव्य तथा मुक्तक काव्य दोनों की रचना की। शब्द शक्तियों तथा अलंकारों के सक्षम प्रयोग के साथ मुहावरों का भी प्रयोग किया है।भारत भारती में देश की वर्तमान दुर्दशा पर क्षोभ प्रकट करते हुए कवि ने देश के अतीत का अत्यंत गौरव और श्रद्धा के साथ गुणगान किया।
भारत श्रेष्ठ था, है और सदैव रहेगा का भाव इन पंक्तियों में गुंजायमान है-
भूलोक का गौरव,
प्रकृति का पुण्य लीला-स्थल कहाँ?
फैला मनोहर गिरि हिमालय और गंगाजल कहाँ?
संपूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है?
उसका कि जो ऋषि भूमि है,
वह कौन, भारतवर्ष है।
महाकवि मैथिलीशरण गुप्त ने अनेकों रचनाओं से लोगो के मन को जीत लिया था| वो न केवल उस समय के महाकवि थे बल्कि उसके साथ वो इस दौर के भी लोकप्रिय है | लोगों के करीब शब्दों से जाने की वो कला उनमे भरपूर थी | वे उनके शब्द ही है जो आज भी इस पीढ़ी को सोचने और लिखने पर मजबूर कर देते है |
"जहाँ न पहुंचे रवी वहाँ पहुँचे कवि " ये मुहावरा मानो मैथिलीशरण गुप्त के लिए ही कहा गया हो |महाकवि मैथिलीशरण गुप्त की कविताओं से मै खुद भी बहुत प्रेरित हुआ हूँ फिर चाहे वो "दोनों ओर प्रेम पलता है" हो या "अर्जुन की प्रतिज्ञा" किन्तु मुझे उनकी कवितों में हमेशा से एक विरोधाभाष नज़र आया है |
जो सही भी हो लेकिन "एक तुच्च लेखक" के रूप में भी शायद" मै" इस योग्य नहीं किन्तु कैसे रोक पाऊँ ये कहने से शायद समय के साथ शब्दों में वो प्रेम नहीं था | कविताओं का दौर माना आज उतना नहीं है क्यूंकि कविताओं की गहराई नापने वाला शब्दकोष और उन पंक्तियों को समझने वाले श्रोतागण अब न नज़र आते है और न दूर दूर तक सुनाई पड़ते है |
एक समय था जब कवितायेँ और उनका अस्तित्व देश के गुण गाता था | आज कवितायेँ हास्य तो है किन्तु उनकी भाषाशैली पर आज बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा है | इंटरनेट की दुनिया में कविता अभद्रता भी हो चुकी है| न शब्दों का ज्ञान है न उस ज्ञान को प्राप्त करने की रूचि बस दो पंक्तिया यहाँ से और दो किसी और की और नाम की छाप छापने में सभी माहिर |
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