Saturday 16 September 2017

कवि कवियों से .... "एक सफ़र " ----- सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

                                                       सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' 


कवि  कवियों से .... "एक सफ़र "



सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' सिर्फ एक नाम ही नहीं किन्तु समय के साथ भारतीय शिक्षा प्रणाली  में सभी नव युग को कविताओं से परिचित कराने वाले वो महान इंसान है जिनकी कविताएं  सोचने पर मजबूर कर देती थी |सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का जन्म २१ फ़रवरी १८९६ को बंगाल  की रियासत महिषादल (जिला मेदनीपुर)में हुआ | उस दिन बंगाल की कोख  में एक महा लेखक के जन्म का आशीर्वाद हुआ था | उनकी कहानी संग्रह लिली में उनकी जन्मतिथि २१ फ़रवरी १८९९ अंकित की गई है।वसंत पंचमी पर उनका जन्मदिन मनाने की परंपरा १९३० में प्रारंभ हुई। उनका जन्म रविवार को हुआ था इसलिए सुर्जकुमार कहलाए। उनके पिता पंण्डित रामसहाय तिवारी उन्नाव (बैसवाड़ा) के रहने वाले थे और महिषादल में सिपाही की नौकरी करते थे। वे मूल रूप से उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले का गढ़कोला नामक गाँव के निवासी थे।

पिता की छोटी-सी नौकरी की असुविधाओं और मान-अपमान का परिचय निराला को आरम्भ में ही प्राप्त हुआ। उन्होंने दलित-शोषित किसान के साथ हमदर्दी का संस्कार अपने अबोध मन से ही अर्जित किया। तीन वर्ष की अवस्था में माता का और बीस वर्ष का होते-होते पिता का देहांत हो गया। अपने बच्चों के अलावा संयुक्त परिवार का भी बोझ निराला पर पड़ा। पहले महायुद्ध के बाद जो महामारी फैली उसमें न सिर्फ पत्नी मनोहरा देवी का, बल्कि चाचा, भाई और भाभी का भी देहांत हो गया। शेष कुनबे का बोझ उठाने में महिषादल की नौकरी अपर्याप्त थी। इसके बाद का उनका सारा जीवन आर्थिक-संघर्ष में बीता। निराला के जीवन की सबसे विशेष बात यह है कि कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने सिद्धांत त्यागकर समझौते का रास्ता नहीं अपनाया, संघर्ष का साहस नहीं गंवाया।

हिन्दी साहित्य के सर्वाधिक चर्चित साहित्यकारों में  सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' जी ने अपना नाम बहुत कम समय में शामिल कर लिया  था |

सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' हिन्दी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक माने जाते है |अपने समकालीन अन्य कवियों से अलग उन्होंने कविता में कल्पना का सहारा बहुत कम लिया है और यथार्थ को प्रमुखता से चित्रित किया है। वे हिन्दी में मुक्तछंद के प्रवर्तक भी माने जाते हैं।

1930 में प्रकाशित अपने काव्य संग्रह परिमल की भूमिका में वे लिखते हैं- "मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्यों की मुक्ति कर्म के बंधन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छन्दों के शासन से अलग हो जाना है। जिस तरह मुक्त मनुष्य कभी किसी तरह दूसरों के प्रतिकूल आचरण नहीं करता, उसके तमाम कार्य औरों को प्रसन्न करने के लिए होते हैं फिर भी स्वतंत्र। इसी तरह कविता का भी हाल है।"

हालांकि सूर्यकान्त  त्रिपाठी "निराला " जी की महान रचनाओं को समझ पाना उनका अध्य्यन  कर पाना हर किसी के बस की बात तो नहीं क्यूंकि उस महान कवि  की महा रचनाएँ अर्श से फर्श तक का सफर तय करती है | कभी-कभी इन्ही कविताओं  का सफ़र किसी की जिंदिगी के लिए प्रेरणा का रूप ले लेता है तो कभी यही रचनाएं  मार्गदर्शक  बनके  भी पाठकों  से जुड़ी  रहती है |

हिंदी और संस्कृत का गहराई से अध्यन  करने की वजह से सूर्यकान्त  त्रिपाठी "निराला" जी का शब्दकोष भिन्न -भिन्न प्रकार से भरा हुआ था | इसका सीधा उदहारण आपको "निराला" जी की कविता संग्रहों मए सीधा देखने को और परखने को मिलेगा | उनका अध्यन कोई बंधा अध्यन नहीं अपितु एक स्वतंत्र अध्यन है जिसमें शब्दों को स्याही  में पिरोकर खाली कागज़ो का सूनापन मिटाने  की उस अध्भुत रूचि को जन्म दिया |


सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' की पहली नियुक्ति महिषादल राज्य में ही हुई। उन्होंने १९१८ से १९२२ तक यह नौकरी की। उसके बाद संपादन, स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य की ओर प्रवृत्त हुए। १९२२ से १९२३ के दौरान कोलकाता से प्रकाशित समन्वय का संपादन किया, १९२३ के अगस्त से मतवाला के संपादक मंडल में कार्य किया। इसके बाद लखनऊ में गंगा पुस्तक माला कार्यालय में उनकी नियुक्ति हुई जहाँ वे संस्था की मासिक पत्रिका सुधा से १९३५ के मध्य तक संबद्ध रहे। १९३५ से १९४० तक का कुछ समय उन्होंने लखनऊ में भी बिताया। इसके बाद १९४२ से मृत्यु पर्यन्त इलाहाबाद में रह कर स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य किया। उनकी पहली कविता जन्मभूमि प्रभा नामक मासिक पत्र में जून १९२० में, पहला कविता संग्रह १९२३ में अनामिका नाम से, तथा पहला निबंध बंग भाषा का उच्चारण अक्टूबर १९२० में मासिक पत्रिका सरस्वती में प्रकाशित हुआ। वे जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा के साथ हिन्दी साहित्य में छायावाद के प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं। उन्होंने कहानियाँ उपन्यास और निबंध भी लिखे हैं किन्तु उनकी ख्याति विशेषरुप से कविता के कारण ही है।


वह आता --
दो टूक कलेजे के करता पछताता
पथ पर आता।

पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को-- भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता--
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।

साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाये,
बायें से वे मलते हुए पेट को चलते,
और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाये।
भूख से सूख ओठ जब जाते
दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?--
घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए |

सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की काव्यकला की सबसे बड़ी विशेषता है चित्रण-कौशल। कलम से निकली हर कविता का रस उसका राग आंतरिक भाव एवं बाहरी मुस्कराहट की तरफ करवटें लेते हुए इशारा कर रहे होते है| सभी अलग-अलग लगनेवाले तत्त्वों को घुला-मिलाकर निराला ऐसा जीवंत चित्र उपस्थित करते हैं कि पढ़ने वाला उन चित्रों के माध्यम से ही निराला के मर्म तक पहुँच सके | उनका विशेष रूप से चिंतन समाहित रहता था | किसानों  के संदर्भ  में उनका मन ,किसानो की परेशानी को देख वो बहुत चिंतन करते थे | यही वजह है की उनकी कविताओं में  वो चिंतन की रेखाएँ  भी साफ़ साफ़ उकेरती नज़र आती है |

निराला के चित्रों में उनका भावबोध ही नहीं, उनका चिंतन भी समाहित रहता है। इसलिए उनकी बहुत-सी कविताओं में दार्शनिक गहराई उत्पन्न हो जाती है। इस नए चित्रण-कौशल और दार्शनिक गहराई के कारण अक्सर निराला की कविताऐं कुछ जटिल हो जाती हैं, जिसे न समझने के नाते विचारक लोग उन पर दुरूहता आदि का आरोप लगाते हैं। उनके किसान-बोध ने ही उन्हें छायावाद की भूमि से आगे बढ़कर यथार्थवाद की नई भूमि निर्मित करने की प्रेरणा दी।


वे किसान की नयी बहू की आँखें 

नहीं जानती जो अपने को खिली हुई--
विश्व-विभव से मिली हुई,--
नहीं जानती सम्राज्ञी अपने को,--
नहीं कर सकीं सत्य कभी सपने को,
वे किसान की नयी बहू की आँखें
ज्यों हरीतिमा में बैठे दो विहग बन्द कर पाँखें;
वे केवल निर्जन के दिशाकाश की,
प्रियतम के प्राणों के पास-हास की,
भीरु पकड़ जाने को हैं दुनियाँ के कर से--
बढ़े क्यों न वह पुलकित हो कैसे भी वर से।

सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' एक छायावादी कवि  तो है ही उसके साथ साथ "निराला" अपने शाब्दिक एवं वास्तिविक जीवन में भी एक सरल और सादा  कवि  थे | निराला जी के जन्म से लेकर उनकी अंतिम साँसों की विदाई तक का सफर भले ही अश्रुपूर्ण  रहा हो लेकिन ये उनकी कविताएं ही थी जो उन्हें लड़ना सिखाती है | कभी कभी ये कविताएं  मायूस भी हो जाती है | मायूस  होने का रंग कभी पाढको पर बहुत गहरी छाप छोड़ जाता है और तो और यही वो लेखनी है जो फिर से खड़े होकर सूर्य के तेज़ की तरह चमकने के लिए तैयार करती है | आज सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' भले ही हमारे बीच नहीं हो लेकिन जब कक्षा ७ या ९ का कोई विद्यार्थी काव्य संग्रह को पढता है तोह मानो हर गूंज  में सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" के जीवित होने का प्रमाण खुद व  खुद मिल जाता है |


गहन है यह अंधकारा;
स्वार्थ के अवगुंठनों से
हुआ है लुंठन हमारा।

खड़ी है दीवार जड़ की घेरकर,
बोलते है लोग ज्यों मुँह फेरकर
इस गगन में नहीं दिनकर;
नही शशधर, नही तारा।

कल्पना का ही अपार समुद्र यह,
गरजता है घेरकर तनु, रुद्र यह,
कुछ नही आता समझ में
कहाँ है श्यामल किनारा।

प्रिय मुझे वह चेतना दो देह की,
याद जिससे रहे वंचित गेह की,
खोजता फिरता न पाता हुआ,
मेरा हृदय हारा।

---सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ---

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