Sunday 17 September 2017


   

कवि  कवियों से ...."एक सफर " 

                                  पीयूष मिश्रा 


 


पीयूष मिश्रा (जन्म १३ जनवरी १९६३) एक भारतीय नाटक अभिनेता, कवि ,संगीत निर्देशक, गायक, गीतकार, पटकथा लेखक हैं। मिश्रा का पालन-पोषण ग्वालियर में हुआ और १९८६ में उन्होंने दिल्ली स्थिति नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा से स्नातक की शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने मकबूल, गुलाल, गैंग्स ऑफ वासेपुर जैसी फ़िल्मों में गाने गाये हैं।
पीयूष  मिश्रा मेरे नज़रिए  में बहुकला और अनेको किरदार को निभाने वाले एक सक्षम व्यक्ति है | उनकी कुछ ही रचनाएँ ऐसी है जो मनुष्यता या सामाजिकता को जोड़ती नज़र आ रही हो अधिकतर उनकी सभी पंक्तियाँ  कही न कही विरोधाभाष ,समाज को कोसती और कई अन्य रूपों में ठरकपन मए लिपटी हुई होती है |

पियूष मिश्रा को समझ पाना इस नासमझ दुनिया के लिए आसान नहीं है | उनकी सभी कविताओं  में एक सच्चाई है जिसकी वजह से कड़वाहट होना भी लाजमी है | स्त्री को लतेडना ,इश्क़ का अनादर ,कही हवस को मोहोबत से तोलना ऐसा आपको उनकी कई कविताओं में  नज़र आएगा | पियूष मिश्रा की माने तो उन्हें काफी लम्बे रसे तक समझ नहीं आया था की वो करना क्या चाहते हैं   ?

कला उनमें  कूट कूट कर भरी थी और जहा भी जिस अलग छेत्र में वो अपनी किस्मत आज़माने जाते वहाँ सफलता उनकी कदम चूमती नज़र आ रही थी |
घर से समय समय पर ज़िम्मेदारी  उठाने की बातें और विवाह के चर्चे उन्हें बांधना चाह रहे होंगे किन्तु जो सभी बंधनो को तोड़ मदमस्त होकर जाता ,लिखता,अभिनय करता वही तो है पियूष मिश्रा|

पियूष मिश्रा के जीवन मए भी एक समय हताशा और निराशा बहुत थी लेकिन ये चेहरा उस हताशा को भी मज़े से चिलम में  भर कर जी रहा था | कभी कही कांच की  शीशी में पानी के दो बूंद डाल  अपने में आज भी जी रहे है | |
थैंक यू साहब…

मुंह से निकला वाह-वाह
वो शेर पढ़ा जो साहब ने
उस डेढ़ फीट की आंत में ले के
ज़हर जो मैंने लिक्खा था…

वो दर्द में पटका परेशान सर
पटिया पे जो मारा था
वो भूख बिलखता किसी रात का
पहर जो मैंने लिक्खा था…

वो अजमल था या वो कसाब
कितनी ही लाशें छोड़ गया
वो किस वहशी भगवान खुदा का
कहर जो मैंने लिक्खा था…

शर्म करो और रहम करो
दिल्ली पेशावर बच्चों की
उन बिलख रही मांओं को रोक
ठहर जो मैंने लिक्खा था…

मैं वाकिफ था इन गलियों से
इन मोड़ खड़े चौराहों से
फिर कैसा लगता अलग-थलग-सा
शहर जो मैंने लिक्खा था…

मैं क्या शायर हूं शेर शाम को
मुरझा के दम तोड़ गया
जो खिला हुआ था ताज़ा दम
दोपहर जो मैंने लिक्खा था…

                             ----पियूष मिश्रा

पियूष मिश्रा की भाषा शैली कभी कभी साहित्यक है और अधिकतर रोज़मर्रा जिसमे कड़ी बोली ,कटु शब्द जो की आज के नवयुग की जीभा पर तान छेड़े होते है उसी का एक रूप है | पियूष मिश्रा जी एक ब्यान करने का अंदाज़ भी बिलकुल उनकी लेखनी की तरह जटपटाता हुआ है | ठहराव और परिवर्तन की उनकी आवाज़ और उनकी लेखनी को कही जरुरत नहीं पडती | पियूष मिश्रा उस युग के शायर है जहाँ शायरी और कविता की परिभाषा में भी मनोरंजन आ गया है |


यह चंद पंक्तिया पर्याप्त है उस गंभीरता को उकेरने के लिए जो महा लेखक पियूष मिश्रा जी कहना चाहते है | मुझे आज तक अपनी विचारधारा  में ये समझ में नहीं आया की पियूष मिश्रा की लेखनी  को वो दूसरा पहलु कैसे मिला जिसमे उन्हें समाज से नफ़रत  है जिसकी वो अवहेलना है वो काली औरत है |
अगर वो"काली औरत" सच है तोह ये " पांच साल की लड़की " क्यों ?

कभी मौका मिला तो खुद भी वार्तालाब करते हुए ये मेरा पहला प्रश्न होगा और इसका जवाब भी तभी मिल पाएगा |


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